पाकिस्तान की सरजमीं पर पल रहे नॉन स्टेट एक्टर्स (बिना देशों वाले आतंकी) या फिर जिहादी आतंकवादी और खासतौर से सलाफी इस्लाम को मानने वाला मसूद अज़हर, हर बार भारत में अपने हमले ऐसे वक्त में करते हैं, जिससे बीजेपी को कहीं न कहीं फायदा होता रहा है। इस बार जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर आत्मघाती हमला भी इसी कड़ी का हिस्सा जान पड़ता है। इस हमले में सीआरपीएफ के 49 जवान शहीद हुए हैं।
दरअसल 14 फरवरी को पुलवामा में आतंकी हमला होने के बाद से राफेल घोटाले का नाम तक किसी ने नहीं लिया है, हालांकि राफेल मामले में शक की सुई सीधे प्रधानमंत्री की तरफ ही जाती है। न तो मुख्यधारा का मीडिया और न ही सोशल मीडिया इसे लेकर कुछ बोल रहा है। बल्कि हो यह रहा है कि मोदी एक बार फिर कड़ी और खरी बातें बोलने वाले ‘ही-मैन’ के रूप में स्थापित किए जाने लगे हैं। कहा जाने लगा है कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए मोदी पर भरोसा करना चाहिए। सारे आलोचकों के मुंह बंद किए जा रहे हैं। और अज़हर मसूद के भरोसे मोदी का भाव बढ़ गया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने खुद भी माहौल को गर्मा रखा है। ‘जवानों के खून की एक-एक बूंद का बदला लिया जाएगा’ जैसे बयान उछाले जा रहे हैं, मानो यह इशारा हो देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी छात्रों को निशाना बनाने का। बीते दो-तीन दिन में देहरादून, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दूसरे बीजेपी शासित राज्यों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और एबीवीपी के लोग कश्मीरी छात्रों को निशाना बना रहे हैं। इन छात्रों को घाटी लौटने का अल्टीमेटम दिया जा रहा है। यानी नए सिरे से घाटी के लोगों को अलग-थलग करने का प्रयास है और बताया जा रहा है कि देश के बाकी लोग कश्मीरियों पर भरोसा नहीं करते।
पुलवामा हमले के बाद देश भर में जैसी प्रतिक्रिया सामने आई, उससे जैश-ए-मोहम्मद का काम ही अंजाम तक पहुंच रहा है। आशंका है कि इससे नए आदिल अहमद डार और नए बुरहान वानी पैदा होंगे। आदिल अहमद डार ने ही विस्फोटकों से भरी गाड़ी को सीआरपीएफ काफिले की बस से टकराया था।
लेकिन मसूद अज़हर की कहानी इतनी सीधी नहीं दिखती। अगर पिछली बड़ी आतंकी घटनाओं पर नजर डालें तो सामने आता है कि जब-जब जैश-ए-मोहम्मद ने हमला किया है, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष फायदा बीजेपी को मिला है। भले ही 2008 के मुंबई हमले के बाद हुए 2009 का लोकसभा चुनाव बीजेपी न जीत पाई हो, लेकिन इस हमले में भगवा ब्रिगेड के निशाने पर रहे महाराष्ट्र एटीएस के चीफ हेमंत करकरे शहीद हो गए थे। करकरे ही वह अफसर थे जिन्होंने पहली बार देश में हिंदू आतंकवाद का खुलासा किया था। भगवा आतंकवाद के आरोप में पकड़े करीब दर्जन भर लोग करकरे की मौत के बाद रिहा हो गए और आज आज़ाद घूम रहे हैं।
इसी तरह 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले के बाद भी बीजेपी को लाभ हुआ था। उस समय देश में वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार थी और पूरे विपक्ष ने ताबूत घोटाले को लेकर सरकार की नाक में दम कर रखा था। विपक्ष रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिज का इस्तीफा चाहता था। लेकिन संसद हमले के बाद समूचा विपक्ष आतंकवाद के मुद्दे पर सरकार के साथ आ गया और वाजपेयी सरकार को इस सबसे मुक्ति मिल गई।
ऐसा ही कुछ करगिल युद्ध के दौर में हुआ था। उस समय केंद्र में एनडीए सरकार थी जो सिर्फ एक वोट से हार गई थी। लेकिन विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया और देश के मध्यावधि चुनावों में जाना पड़ा। करगिल युद्ध को भी ‘नॉन स्टेट एक्टर्स’ का काम बताया गया था। इसके बाद अमेरिका के दखल के बाद पाकिस्तानी सेना बिना चूं-चरा किए भारतीय चौरकियों से पीछे हट गई थी। भारत ने विजय पताका लहराई और बीजेपी चुनावों में 182 सीटों के साथ फिर से सत्ता में आ गई।
ऐसे और भी बहुत से संयोग हैं। लेकिन बुनियादी सवाल यही है कि ऐसे हमलों के बाद आखिर में सबसे ज्यादा फायदा किसका होता है, परेशान कश्मीरी युवाओं का या फिर भगवा ब्रिगेड का?
अभी कुछ दिन पहले ही कश्मीर के 2009 के आईएएस टॉपर शाह फैसल ने आईएएस की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी थी। उनका इस सेवा से मोह भंग हो गया क्योंकि कश्मीरी युवाओं की सुनने वाले कोई नहीं है। उन्होंने एक सम्मेलन में कहा था कि, हर बार जब भी कोई कश्मीरी युवा आतंकवाद को लात मारकर शिक्षा या अन्य क्षेत्र में आना चाहते हैं, तब ही कोई आतंकी घटना होती है और उन्हें इसके लिए जिम्मेदार मान लिया जाता है।
फराज अहमद,
(एक ब्लाग से साभार)